आधुनिक भारत के इतिहास में आंग्ल-मैसूर युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण खण्ड है. आंग्ल-मैसूर युद्ध ने न केवल भारतीय इतिहास में एक नया युग शुरू किया बल्कि इस युद्ध ने अंग्रेजो की प्रभुता को और मजबूती प्रदान की. इसके साथ ही, मैसूर राज्य का इतिहास भारत के दक्षिणी हिस्से में महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। यह क्षेत्र विभिन्न राजवंशों और शासकों के अधीन रहा है, जिन्होंने यहां की राजनीति, संस्कृति, और आर्थिक संरचना को प्रभावित किया है।
आंग्ल-मैसूर युद्ध- मैसूर राज्य का प्रारंभिक इतिहास
वर्ष 1565 में हुए तालीकोटा के ऐतिहासिक युद्ध में विजयनगर साम्रज्य का पतन हुआ, जिससे विजयनगर साम्रज्य के अवशेषों पर कई राज्यों का उदय हुआ, इसमें मैसूर भी एक राज्य था जिसका उदय हुआ था. इस मैसूर राज्य पर वोडेयार वंश का शासन स्थापित हुआ. इस वंश का अंतिम शासक चिक्का कृष्णराज वोडेयार (1734 ईस्वी- 1766 ईस्वी) का सत्ता दो मंत्रियों के हाथ में था, वह आपस में भाई थे. एक नाम देवराज एवं दुसरे का नाम नन्दराज था.
मैसूर राज्य की कहानी विशेष रूप से हैदर अली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान के शासनकाल के कारण उल्लेखनीय है। ये दोनों शासक अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसने मैसूर को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
हैदर अली का उदय
हैदर अली का जन्म 1722 ई. में मैसूर के कोलार जिले में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता फतेह मुहम्मद एक किले में सैनिक अधिकारी थे, एवं इनके पिता की मृत्यु 1728 ई. में एक हो गई थी। आगे चलकर हैदर अली ने एक साधारण सैनिक के रूप में अपना करियर 1749 ईस्वी में शुरू किया. समय के साथ हैदर अली की वीरता और युद्धकौशल से प्रभावित होकर, मैसूर के प्रधानमंत्री नंजराज ने उन्हें 1755 ई. में डीडीगुल किले का फौजदार नियुक्त कर दिया।
हैदर अली का शासनकाल
हैदर अली ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम में राजनितिक अस्थिरता का लाभ लेकर 1760 ई. में नंदराज को समाप्त कर स्वयं को मैसूर का शासक घोषित कर दिया। उन्होंने राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी शक्ति स्थापित की और अपने प्रशासन को सुदृढ़ किया। 1763 ई. में वेदनूर के राजा की मृत्यु के बाद, हैदर अली ने वहां के उत्तराधिकार विवाद में हस्तक्षेप किया और अपने समर्थक को सिंहासन पर बिठाया। इसके बाद, उन्होंने वेदनूर का नाम बदलकर हैदरनगर कर दिया।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1768-1769)
ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में सफलता के बाद अपनी सीमा क्षेत्र को बढ़ाने के लिए अन्य रियासतों से उलझ गया, एवं इसके साथ ही कंपनी ने मैसूर पर आक्रामक नीति को अपनाया. जिसके फलस्वरुप प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध हुआ.
- प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध में मुख्यत: चार रियासत की भूमिका देखने को मिलती है- ईस्ट इंडिया कंपनी, हैदराबाद का निजाम, मराठा, मैसूर.
- हैदरअली ने अंग्रेजों के मित्र राज्य कर्नाटक पर आक्रमण करने के बाद, हैदराबाद के निजाम को 1767 ईस्वी में तिरुवन्नमलाई नामक स्थान पर पराजित किया. इसके साथ ही हैदरअली ने 1768 ईस्वी में अंग्रेजी सेना को बुरी तरह से हराया. अंग्रेज अपने वजूद का संकट देखते हुए 1769 ईसवीं में हैदरअली की शर्तों पर मद्रास की संधि कर ली. इस संधि में कहा गया था की अंग्रेज हैदर को युद्ध का हर्जाना देंगें लेकिन ऐसा हो न सका.
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784)
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कुछ कारण है-
- मद्रास की संधि के अनुसार अंग्रेजो को मैसूर राज्य की सहायता करनी थी, लेकिन 1771 में मराठो ने मैसूर पर आक्रमण करने के बाद अंग्रेज मैसूर का साथ नहीं दिया.
- हैदरअली ने भी मराठो और निजाम के साथ एक त्रिगुट संधि कर लिया.
- अंग्रेजों ने हैदरअली की प्रभुता को चुनौती देते हुए मैसूर राज्य के अन्दर स्थित माहे क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया.
देखते ही देखते जुलाई, 1780 ईस्वी में हैदरअली ने कर्नाटक राज्य पर आक्रमण कर दिया, जिससे द्वितीय आंग्ल-मैसूर राज्य आरम्भ हो गया. इस युद्ध में हैदरअली ने अंग्रेज जनरल आयरकूट को सन 1782 में हरा दिया लेकिन 7 दिसम्बर,1782 को हैदरअली की मृत्यु होने से टीपू सुलतान ने युद्ध को जारी रखा लेकिन 1784 ईस्वी में मंगलोर की संधि हो गई. इस संधि की शर्तो के अनुसार दोनों पक्षों को अपने भू-भाग लौटा देने पर सहमती बनी.
तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1790-1792)
कारण- 1788 ईस्वी में अंग्रेजों द्वारा निजाम को एक पत्र लिखा गया जिससे निजाम मैसूर पर हमला कर दे. टीपू ने इसे मंगलोर की संधि का उल्लंघन माना और 1789 ईस्वी में त्रावनकोर पर हमला शुरू कर दिया. इसके साथ ही अंग्रेजों ने इस आक्रमण को आधार बनाकर मराठों और निजाम से संधि कर ली.
यह युद्ध तीन चरणों में शुरू हुआ था
- पहला चरण- इसमें जनरल मिडो अंग्रेज सेनापति था, लेकिन इस चरण में टीपू आगे रहा.
- दूसरा चरण- यह दिसम्बर,1790 में शुरू हुआ. इस चरण में कार्नवालिस का योगदान महत्वपूर्ण रहा था, परन्तु वर्षा ऋतू आ जाने से उसे सफलता नहीं मिल पायी.
- तीसरा चरण- इस चरण ने टीपू का को आत्मसमर्पण करना पड़ा और श्रीरंगपट्टनम की संधि(1792) करनी पड़ी. इस संधि ने टीपू को अपना आधा राज्य अंग्रेजों को दे देना पड़ा. युद्ध हर्जाने के तौर पर टीपू को 3 करोड़ रूपये और अपने दोनों बेटों को बंधक के रूप में रखन पड़ा.
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (मार्च 1799- मई 1799)
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.) के दौरान, अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टनम पर हमला किया और टीपू सुल्तान ने घमासान युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी मृत्यु के बाद, मैसूर राज्य पर वाडियार वंश को फिर से स्थापित किया गया और अंग्रेजों के साथ सहायक संधि की गई।
टीपू सुल्तान का शासनकाल
हैदर अली की मृत्यु के बाद, उनका पुत्र टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू सुल्तान का पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था। टीपू ने अपने शासनकाल में कई सुधार किए और आधुनिक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की। उन्होंने अपने नाम के सिक्के चलाए और हिंदू महीनों के नामों के स्थान पर इस्लामी नामों का प्रयोग किया। उन्होंने आधुनिक कैलेंडर और नाप-तौल के नए पैमाने अपनाए।
टीपू सुल्तान ने फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित होकर अपने राज्य में जैकोबिन क्लब की स्थापना किया था, उन्होंने श्रीरंगपट्टनम में स्वतंत्रता का वृक्ष लगाया और कई विदेशी देशों से दूतावास स्थापित किए। टीपू ने युद्धों में पहली बार रॉकेटों का प्रयोग किया और अंग्रेजों के खिलाफ पोल्लीलूर के युद्ध (1780 ई.) में लोहे के आवरण वाले बांस के रॉकेटों का उपयोग किया। टीपू ने श्रीन्गेरी मंदिर की मरम्मत एवं शारदा देवी की मूर्ति को स्थापित करने के लिए धन प्रदान किया. इसके साथ ही टीपू ने पालकी की इस्तेमाल को बंद करवा दिया और इसे केवल विकलांग एवं महिलायों के लिए उपयुक्त समझा.
मैसूर का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हैदर अली और टीपू सुल्तान के संघर्षों ने दक्षिण भारत में अंग्रेजों की शक्ति को चुनौती दी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। उनकी वीरता और सुधारवादी दृष्टिकोण ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान दिलाया है।
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