
यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के किसी प्रावधान के तहत नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के माध्यम से विकसित हुई है।
कॉलेजियम प्रणाली का विकास
पहला न्यायाधीश मामला (1981):
- इस मामले में यह कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश को “वाजिब कारणों” से अस्वीकार किया जा सकता है।
- इस निर्णय के कारण अगले 12 वर्षों तक न्यायिक नियुक्तियों में सरकार का प्रभाव अधिक रहा।
दूसरा न्यायाधीश मामला (1993):
- इस फैसले में कॉलेजियम प्रणाली को लागू किया गया और “परामर्श” का अर्थ “सहमति” बताया गया।
- यह भी कहा गया कि यह केवल मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि वरिष्ठतम दो न्यायाधीशों से विचार-विमर्श के बाद बनी राय होगी।
तीसरा न्यायाधीश मामला (1998):
- राष्ट्रपति द्वारा भेजी गई सलाह पर सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली का विस्तार किया और इसे पाँच सदस्यीय निकाय बना दिया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
कॉलेजियम प्रणाली का नेतृत्व कौन करता है?
सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम:
- इसका नेतृत्व मुख्य न्यायाधीश करते हैं और इसमें चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल होते हैं।
उच्च न्यायालय कॉलेजियम:
- इसमें संबंधित उच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
सरकार की भूमिका:
- कॉलेजियम द्वारा नाम तय किए जाने के बाद ही सरकार की भूमिका शुरू होती है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया:
मुख्य न्यायाधीश (CJI) की नियुक्ति:
- भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- परंपरा के अनुसार, वर्तमान मुख्य न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी का सुझाव देते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति:
- मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश पर अन्य चार वरिष्ठ न्यायाधीशों से विचार-विमर्श किया जाता है।
- संबंधित उच्च न्यायालय से आने वाले न्यायाधीश पर उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी राय ली जाती है।
- अंतिम सिफारिश राष्ट्रपति को भेजने से पहले यह प्रस्ताव कानून मंत्री और प्रधानमंत्री को भेजा जाता है।
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति:
- परंपरा के अनुसार, संबंधित राज्य के बाहर से मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रस्ताव कॉलेजियम द्वारा तय किया जाता है।
- प्रस्ताव पहले राज्य के मुख्यमंत्री को भेजा जाता है, जो इसे राज्यपाल के माध्यम से केंद्रीय कानून मंत्री को भेजते हैं।
कॉलेजियम प्रणाली से जुड़ी समस्याएँ:
सरकार की भूमिका नगण्य होना:
- इस प्रणाली में सरकार को पूरी तरह से बाहर रखा गया है, जिससे नियुक्ति प्रक्रिया कुछ न्यायाधीशों तक सीमित होकर रह जाती है।
पक्षपात और भाई-भतीजावाद की संभावना:
- किसी उम्मीदवार की गुणवत्ता को परखने का कोई स्पष्ट मापदंड नहीं होने के कारण भाई-भतीजावाद और पक्षपात की संभावना रहती है।
जांच और संतुलन के सिद्धांत का उल्लंघन:
- भारत की शासन व्यवस्था में तीनों अंगों को संतुलन बनाए रखना होता है, लेकिन यह प्रणाली न्यायपालिका को असीमित शक्ति प्रदान करती है।
गोपनीयता और पारदर्शिता की कमी:
- कॉलेजियम प्रणाली में निर्णय लेने की प्रक्रिया को सार्वजनिक नहीं किया जाता, जिससे पारदर्शिता की कमी बनी रहती है।
असमान प्रतिनिधित्व:
- उच्च न्यायपालिका में महिलाओं और समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत कम है।
नियुक्ति प्रणाली में सुधार के प्रयास:
चौथा जज मामला (2015)- 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाने की कोशिश की थी, लेकिन 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया।
FAQ- भारत में कॉलेजियम प्रणाली कब लागू हुई थी?
Ans- भारत में कॉलेजियम प्रणाली साल 1993 में लागू हुई थी. यह प्रणाली, देश की अदालतों में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए बनाई गई थी.
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