आंग्ल-मराठा युद्ध भारतीय इतिहास के उन महत्वपूर्ण संघर्षों में से एक हैं, जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता और मराठा साम्राज्य के भविष्य को आकार दिया था। मराठा साम्राज्य 18वीं सदी में भारत की सबसे प्रमुख शक्तियों में से एक था, लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती ताकत और सामरिक नीतियों ने मराठाओं के साथ उनके संघर्ष को अपरिहार्य बना दिया। इन युद्धों के परिणामस्वरुप भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व की स्थापना हुई, और मराठा साम्राज्य का पतन हो होने लगा।
आंग्ल-मराठा युद्ध का इतिहास
मराठा भारत के दक्षिणी राज्यों में सैनिक और असैनिक पदों पर कार्य करते हुए मराठा साम्रज्य की नीवं रखी थी. औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा प्रशासन में आमूल चुल परिवर्तन आया, जिसके परिणाम स्वरुप मराठे अब दिल्ली की गद्दी को किंगमेकर की तरह उपयोग करने लगे थे. लेकिन वर्ष 1761 में हुए पानीपत के तृतीय युद्ध ने सब कुछ बदल कर रख दिया था. पानीपत का तृतीय युद्ध मराठे और अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ था, जिसमें मराठे बहुत बुरी तरह हारे थे.
लगभग एक दशक के भीतर मराठा साम्रज्य एक बार फिर नए शक्ति के रूप में उभरे और आगे चल कर मराठा और अंग्रेज के बीच संघर्ष का दौर शुरू होता हैं. यह संघर्ष राजनीतिक सर्वोच्चता के लिए होता है एवं इसके लिए तीन आंग्ल -मराठा युद्ध हुए थे.
आंग्ल-मराठा युद्ध कुल मिलाकर तीन चरणों में लड़े गए: पहला युद्ध (1775-1782), दूसरा युद्ध (1803-1805), और तीसरा युद्ध (1817-1818)। इन युद्धों में, मराठा सरदारों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच सत्ता और नियंत्रण के लिए निर्णायक संघर्ष हुआ था।
पहला आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782)
पहला आंग्ल-मराठा युद्ध पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद प्रारंभ हुआ। उनके भाई नारायणराव की हत्या के बाद पेशवा की गद्दी को लेकर मराठा साम्राज्य में संघर्ष उत्पन्न हो गया था। रघुनाथराव (राघोबा), जो पेशवा की गद्दी पर दावा कर रहे थे, ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से सहायता मांगी और इस सहायता के बदले कुछ क्षेत्र देने का वादा किया था।
रघुनाथ राव ने ईस्ट इंडिया कंपनी से वर्ष 1775 में सूरत की संधि कर ली जिसके तहत अंग्रेज रघुनाथराव को पेशवा बनने में सहायता करेगा। सूरत की संधि के अनुसार रघुनाथ राव ने सालसेट एवं बेसिन का क्षेत्र सूरत और बहराइच जिलों से राजस्व के हिस्से के साथ अंग्रेजो को सौंप दिया, इसके बदले में अंग्रेजों ने 2500 सैनिको की टुकड़ी रघुनाथ राव के पास भेजा.
लेकिन मराठा साम्राज्य की प्रमुख ताकतों ने रघुनाथराव का विरोध किया, जिससे संघर्ष और बढ़ गया। युद्ध के शुरुआती चरणों में ब्रिटिश सेना को असफलता का सामना करना पड़ा और जनवरी 1779 में अंग्रेजों ने वडगाँव की संधि की जिसमे बांबे की सरकार को 1775 से हासिल किये सभी क्षेत्रों को छोड़ने को बाघ्य होना पड़ा. परन्तु बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग ने इस संधि को मानने इस इनकार कर दिया और गोडार्ड के नेतृत्त्व में सेना भेज दिया.
ब्रिटिशों ने रणनीतिक रूप से विजय हासिल की और मराठों के साथ वर्ष 1782 में सालबाई की संधि के तहत यह युद्ध समाप्त हुआ, जिसमें तय किया गया कि रघुनाथराव को पेशवा के पद से हटाया जाएगा और मराठाओं को ब्रिटिशों द्वारा कब्जा किए गए क्षेत्र वापस कर दिए जाएंगे। इस संधि के माध्यम से ब्रिटिशों और मराठाओं के बीच एक अस्थायी शांति स्थापित हुई, इसके साथ ही साथ आंग्ल-मैसूर युद्ध भी जारी रहा, लेकिन यह केवल एक विराम था, न कि स्थायी समाधान।
दूसरा आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805)
पहला युद्ध समाप्त होने के कुछ वर्षों बाद, मराठा साम्राज्य आंतरिक कलह और सत्ता संघर्ष का शिकार हो गया एवं इसके साथ ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपनी शक्ति को विस्तार देने के लिए सक्रिय रूप से योजना बना रही थी। 1802 में बेसिन की संधि के बाद, ब्रिटिशों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को संरक्षण देना शुरू कर दिया, जिसने मराठा सरदारों में असंतोष को जन्म दिया।
दूसरा आंग्ल-मराठा युद्ध मुख्य रूप से तीन मराठा शक्तियों के साथ ब्रिटिश संघर्ष पर केंद्रित था: सिंधिया, भोसले, और होलकर। अहमदनगर,दिल्ली,और असाई की लड़ाई में, ब्रिटिश सेना के जनरल आर्थर वेलेस्ली (जो बाद में वेलिंगटन के ड्यूक बने) ने प्रमुख विजय हासिल किया था । 1803 में सिंधिया और भोसले दोनों को हराकर, ब्रिटिशों ने उनके प्रमुख क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद मराठा सरदारों को विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया, जिसके तहत उनके क्षेत्रीय अधिकार कम कर दिए गए और ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करना पड़ा।
बेसिन की संधि
- ब्रिटिश संरक्षण को स्वीकार कर अंग्रेजी सेनाओं को पुन में रखना स्वीकार कर लिया था
- ब्रिथिश कंपनी को सूरत दे दिया गया.
- मराठा सेना में अंग्रेजी कंपनी के विरुद्ध विचार रखने वाले को निवृत करना.
तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818)
तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध मराठा साम्राज्य के पतन की अंतिम कड़ी थी। मराठाओं ने धीरे-धीरे अपने क्षेत्रीय अधिकार खो दिए थे और अब वे अपनी स्वतंत्रता को खोने की कगार पर थे। बाजीराव द्वितीय, जिन्होंने ब्रिटिश संरक्षण के तहत पेशवा की उपाधि धारण की थी, अपनी शक्ति खोने के डर से ब्रिटिशों के खिलाफ विद्रोह कर बैठे।
लार्ड हेस्टिंग्स ने पिंडारियों के विरुद्ध अभियान से मराठो के अस्तित्व को चुनौती मिली एवं 1817 दौलतराम सिंधियां और आप्पा साहिब ने युद्ध की घोषणा कर दिया. यह युद्ध महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, और राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में लड़ा गया। हालांकि मराठाओं ने बहादुरी से संघर्ष किया, लेकिन ब्रिटिश सेना की रणनीतिक श्रेष्ठता और आधुनिक युद्धक तकनीकों ने उन्हें निर्णायक रूप से पराजित कर दिया।
1818 तक, प्रमुख मराठा सेनानायक सिंधिया, भोसले, होळकर, और गायकवाड़ को आत्मसमर्पण करना पड़ा और ब्रिटिशों ने पेशवा की उपाधि को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही, मराठा साम्राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया, और पूरे भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार हो गया।
युद्धों का परिणाम और प्रभाव
आंग्ल-मराठा युद्धों का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि इससे मराठा साम्राज्य का पतन हो गया और आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत के अधिकांश हिस्सों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में मदद मिली.
इन युद्धों से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय शासकों की आपसी फूट और ब्रिटिशों की कूटनीतिक चालें उन्हें बार-बार कमजोर करती रहीं। इसके साथ ही मराठा सरदारों के बीच एकता की कमी और ब्रिटिशों की आधुनिक सैन्य तकनीक के आगे उनकी पारंपरिक युद्धक रणनीतियाँ असफल रहीं थीं।
ब्रिटिशों ने इन युद्धों से न केवल मराठाओं को हराया, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, जिसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम तक ब्रिटिश शासन के लिए रास्ता तैयार किया था।
आंग्ल-मराठा युद्ध भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ थे, जिन्होंने न केवल मराठा साम्राज्य के पतन को सुनिश्चित किया बल्कि भारत में ब्रिटिश शासन की नींव भी रखी। मराठाओं की वीरता और उनका संघर्ष भारतीय इतिहास में हमेशा स्मरणीय रहेगा, लेकिन इन युद्धों ने यह भी सिखाया कि बाहरी आक्रमणकारियों के सामने एकता और सामूहिक दृष्टिकोण की आवश्यकता कितनी महत्वपूर्ण होती है।