
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण संरक्षण और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करते हुए केंद्र सरकार की 2017 की उस नीति को रद्द कर दिया है, जो “पोस्ट फैक्टो” यानी पहले शुरू और बाद में मंजूरी देने वाली प्रणाली को वैध बनाती थी। इस नीति के तहत, बिना पूर्व अनुमति के शुरू की गई खनन, औद्योगिक और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को बाद में पर्यावरणीय क्लीयरेंस मिल सकता था। अदालत ने इसे पर्यावरणीय कानूनों, अनुच्छेद 14 और 21 का स्पष्ट उल्लंघन माना और देश में पर्यावरणीय न्याय के लिए एक अहम मिसाल पेश की है।
क्या थी ‘पोस्ट फैक्टो’ पर्यावरणीय मंजूरी नीति?
वर्ष 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके अनुसार:
- ऐसी परियोजनाएं जो बिना पर्यावरणीय मंजूरी के शुरू हो चुकी हैं, उन्हें “एक बार के लिए” 6 महीने की राहत देकर मंजूरी दी जा सकती थी।
- इस नीति का उद्देश्य यह था कि मौजूदा परियोजनाएं बंद न हों और उन्हें कार्य जारी रखने का मौका मिले।
इस नीति के तहत खनन, औद्योगिक, निर्माण और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाएं आती थीं। बाद में 2021 में, मंत्रालय ने दो ऑफिस मेमोरेंडम (OM) भी जारी किए, जिनमें ऐसे उल्लंघनों को नियमित करने की प्रक्रिया दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: क्या कहा अदालत ने?
इस नीति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उललित भट्टाचार्य की पीठ ने कहा:
“ऐसी नीति उन लोगों को संरक्षण देती है जिन्होंने पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन किया है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और पर्यावरण के अधिकार) का उल्लंघन है।”
अदालत की मुख्य टिप्पणियाँ:
- पर्यावरणीय मंजूरी कोई औपचारिकता नहीं, बल्कि सार्वजनिक भागीदारी और वैज्ञानिक मूल्यांकन की प्रक्रिया है।
- “पूर्वव्यापी मंजूरी” की नीति पर्यावरण को स्थायी नुकसान पहुंचा सकती है।
- केंद्र सरकार ने पहले ही 2017 में मद्रास हाईकोर्ट में कहा था कि ऐसी नीति फिर नहीं लाई जाएगी, फिर भी ऐसा हुआ।
कोर्ट ने क्या-क्या कहा?
- “जो लोग पर्यावरण को नुकसान पहुंचा चुके हैं, उन्हें कानून की ढाल नहीं दी जा सकती।”
- “सरकार की जिम्मेदारी है कि वह पर्यावरण की रक्षा करे, न कि नियमों को लचीला बनाए।”
- अदालत ने 2021 की पर्यावरण मूल्यांकन समिति की रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया।
पृष्ठभूमि: पहले भी आलोचना झेल चुकी है नीति
इस नीति की वैधता पर पहले भी सवाल उठ चुके हैं:
- कॉमन कॉज बनाम भारत सरकार (2017) केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि पोस्ट फैक्टो मंजूरी अस्वीकार्य है।
- Alembic Pharmaceuticals (2020) मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया का उल्लंघन करने वालों को बाद में राहत नहीं दी जा सकती।
फैसले का महत्व
- यह फैसला स्पष्ट करता है कि विकास कार्यों के नाम पर पर्यावरण की अनदेखी नहीं की जा सकती।
- न्यायपालिका ने यह संदेश दिया है कि कानून तोड़ने वालों को “लाइसेंस” नहीं मिल सकता।
- यह निर्णय भावी परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रक्रिया को पारदर्शी, सख्त और प्रभावशाली बनाने में मदद करेगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पर्यावरणीय शासन, संवैधानिक नैतिकता और सतत विकास के सिद्धांतों को मजबूत करता है। यह न केवल केंद्र सरकार के लिए चेतावनी है, बल्कि उन परियोजना संचालकों के लिए भी जो नियमों को ताक पर रखकर काम शुरू कर देते हैं।
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