17 वीं शताब्दी के अंत तक अंग्रेजों ने डचों एवं पुर्तगालियों को समाप्त कर अपने लिए एक नया प्रतिद्वंदी फ़्रांस को खड़ा किया जिसके फलस्वरूप आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या कर्नाटक युद्ध के एक नए अध्याय के रूप मे भारत के इतिहास में दर्ज हुआ. 18वीं शताब्दी का भारत राजनीतिक उथल-पुथल और औपनिवेशिक शक्तियों के संघर्ष का गवाह बना था. आंग्ल- फ़्रांसीसी युद्ध को प्रमुखतः कर्नाटक युद्ध के नाम से जाना जाता है.
आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध तीन चरणों में लड़ा गया था, कर्नाटक युद्ध इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इन युद्धों ने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया एवं इस युद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नींव रख दिया.
आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या कर्नाटक युद्ध की पृष्ठभूमि
कर्नाटक युद्ध का नाम दक्षिण भारत के कोरोमंडल तट और उसके आंतरिक इलाकों से लिया गया है, जिसे यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने ‘कर्नाटक’ कहा था। 1668 ईस्वी में फ्रांसीसियों ने सूरत में पहली व्यापरिक कोठी की स्थापना किया था, इसके साथ साथ फ्रांसीसियों ने कलकत्ता में अपनी व्यापारिक फैक्ट्री भी स्थापित कर लिया था.
इस तरह फ्रांसीसी कम्पनी को व्यापार में सफलता मिलती चली गई. यही सफलता फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संघर्ष का मुख्य कारण बन कर उभरा, जिसे इतिहास में आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या कर्नाटक युद्ध के नाम से जाना जाता है.
प्रथम आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740-1748)
18वीं शताब्दी के मध्य में यूरोप में ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच संघर्ष तेज हो गया था एवं इसका प्रभाव भारत तक भी फैल गया। प्रथम कर्नाटक युद्ध यूरोप में चल रहे 1740 ईस्वी में ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध का भारतीय संस्करण था। इस युद्ध का मुख्य कारण यूरोप में एंग्लो-फ्रांसीसी संघर्ष था।
प्रथम कर्नाटक युद्ध में कर्नाटक के नवाब के उतराधिकार का संघर्ष दिखाई दे रहा था परन्तु इस युद्ध में अंग्रेज और फ्रांसीसी आपस में लड़ रहे थे. भारत में प्रथम कर्नाटक का युद्ध शुरू होने का मुख्य कारण था की पांडिचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरुदीन से निवेदन किया की वह कर्नाटक में किसी प्रकार का युद्ध न होने दे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ.
इस युद्ध में फ्रांसीसी गवर्नर जनरल जोसेफ-फ्रांस्वा डुप्ले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई एवं फ्रांसीसी सेनाओं ने सेंट थोम (अब चेन्नई का एक हिस्सा) के युद्ध में कर्नाटक के नवाब अनवर-उद-दीन की सेनाओं को पराजित कर किया। अंग्रेजों ने नवाब से सहायता की अपील की थी, लेकिन नवाब की सेना फ्रांसीसियों के सामने कमजोर साबित हुई।
अक्टूबर 1748 में हस्ताक्षरित ऐक्स-ला-चैपल की संधि के साथ कर्नाटक का प्रथम युद्ध समाप्त हुआ एवं इस संधि के तहत अंग्रेजों को भारत में मद्रास तथा फ्रांसीसियों को उत्तरी अमेरिका में लुईसबर्ग फिर से प्राप्त हो गए. इस युद्ध में कोई निर्णायक जीत नहीं हुई, लेकिन इसने ब्रिटिश और फ्रांसीसी के बीच भारत में सत्ता संघर्ष की नींव रखी।
द्वितीय आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1751-1755)
प्रथम कर्नाटक युद्ध के समाप्त होने के बाद भारत में शांति ज्यादा समय तक नहीं रह सकी। इस युद्ध की पृष्ठभूमि प्रथम कर्नाटक युद्ध के परिस्थितिओं में निर्मित हुई थी.
1748 ईस्वी में दक्कन के मुगल गवर्नर और हैदराबाद के नवाब निज़ाम–उल–मुल्क की मृत्यु हो जाने पर उसके पुत्र मुजफ्फरजंग एवं नासिरजंग के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया था. ठीक इसी समय कर्नाटक में भी कर्नाटक के नवाब अन्वारुद्दीन एवं चन्दा साहब के बीच संघर्ष शुरू हो गया था.
हैदराबाद और कर्नाटक के उत्तराधिकार के युद्ध में ब्रिटिश और फ्रांसीसी दोनों ने हस्तक्षेप किया। फ्रांसीसियों ने कर्नाटक में चंदा साहब और हैदराबाद में मुज़फ्फरजंग साथ दिया तो वहीँ अंग्रेजों ने कर्नाटक में अनवरुद्दीन व हैदराबाद में नासिरजंग का साथ दिया. इसी कारण से दोनों एक फिर आपस में लड़ने को तैयार हो गई.
फ्रांसीसी गवर्नर डुप्लेक्स ने इस अवसर का लाभ उठाकर दक्षिण भारत में फ्रांसीसी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया। वर्ष 1749 में अंबूर के युद्ध में मुजफ्फर जंग, चंदा साहिब, और फ्रांसीसी सेनाओं ने अनवर–उद–दीन को पराजित कर उसकी हत्या कर दिया। इसके बाद मुजफ्फर जंग को हैदराबाद का निज़ाम और डुप्लेक्स को कृष्णा नदी के दक्षिण में स्थित सभी मुगल क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किया गया। हालाँकि, मुजफ्फर जंग की जल्द ही हत्या कर दी गई, और फ्रांसीसियों ने उसके चाचा सलाबत जंग को हैदराबाद के नए निज़ाम के रूप में स्थापित किया।
इस युद्ध में रॉबर्ट क्लाइव की भूमिका महत्वपूर्ण थी। राबर्ट क्लाइव ने 1751 कें कर्नाटक के त्रिचिनोपोली में मोहम्मद अली की सहायता करते हुए अंग्रेजों के लिए अर्काट (कर्नाटक की राजधानी) को जीत लिया था। युद्ध के अंत में डुप्ले की नीति को असफल मानते हुए, उसे फ्रांस वापस बुला लिया गया एवं वर्ष 1754 में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच पोंडिचेरी की संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें यह तय हुआ कि वे भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
तृतीय आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध या तृतीय कर्नाटक युद्ध (1758-1763)
तृतीय कर्नाटक युद्ध यूरोप में चल रहे 1756 में सप्तवर्षीय युद्ध (SevenYears War) का भारतीय संस्करण था। इस युद्ध में ब्रिटिश और फ्रांसीसी सेनाओं के बीच कई लड़ाइयाँ लड़ी गईं। फ्रांसीसी सरकार ने काउन्ट डे लाली को सेनापति बनाकर भारत भेजा गया था और इसने देखा की अंग्रेज बंगाल पर आधिपत्य जमा चुके थे.
1757 ईस्वी में अंग्रेजों ने चन्द्रनगर (पश्चिम बंगाल ) जो फ्रांसीसी बस्ती थी, उस पर कब्जा कर लिया था. लाली जैसे ही भारत आया, उसने सबसे पहले अंग्रेजों की बस्ती फोर्ट सेंट डेविड पर 1758 ईस्वी में अधिकार कर लिया. इसके बाद लाली ने तंजावूर को लम्बे समय तक घेरे रखा परन्तु यह विफल साबित हुई.
तंजावुर की घेरा विफल होने के बाद लाली ने मद्रास को घेरने की निर्णय बनाया. लगभग 1 साल बाद दोनों कंपनीयां वांडिवाश नामक स्थान पर एकत्र हुई और उन दोनों में युद्ध हुआ. 1760 में वांडिवाश की लड़ाई ने इस युद्ध का रुख बदल दिया। ब्रिटिश सेनाओं ने फ्रांसीसी सेनाओं को निर्णायक रूप से पराजित किया। 1763 ईस्वी में पेरिस की संधि के साथ युद्ध समाप्त हो गया, जिससे भारत में फ्रांसीसी प्रभाव लगभग समाप्त हो गया।
आंग्ल – फ्रांसीसी संघर्ष |
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युद्ध | वर्ष | कारण | संधि |
प्रथम कर्नाटक युद्ध | 1740-1748 | आस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध | एलाश पल की संधि(1748) |
द्वितीय कर्नाटक युद्ध | 1751-1755 | हैदराबाद और कर्नाटक के आंतरिक मामले में विवाद | पांडिचेरी की संधि(1754) |
तृतीय कर्नाटक युद्ध | 1758-1763 | सप्तवर्षीय युद्ध से प्रभावित | पेरिस की संधि(1763) |
कर्नाटक के युद्ध का प्रभाव
कर्नाटक के युद्धों का भारत के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन युद्धों ने भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश प्रभुत्व को मजबूत किया और फ्रांसीसी प्रभाव को कमजोर कर दिया।
- ब्रिटिश सैन्य श्रेष्ठता: कर्नाटक के युद्धों ने साबित कर दिया कि ब्रिटिश सेनाएँ स्थानीय भारतीय सेनाओं से कहीं अधिक शक्तिशाली थीं। यूरोपीय युद्ध तकनीकों और संगठित सैन्य संरचनाओं ने भारतीय शासकों के असंगठित और पुरानी सैन्य प्रणालियों को पीछे छोड़ दिया।
- स्थानीय संघर्षों का शोषण: अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं और नवाबों के आंतरिक संघर्षों का कुशलतापूर्वक शोषण किया। उन्होंने अपने राजनीतिक और सैन्य समर्थन के बदले में भारतीय रियासतों पर अपनी पकड़ मजबूत करने में सफल रहें।
- सहायक संधियाँ: कर्नाटक युद्ध के दौरान सहायक संधियों की परंपरा शुरू हुई। इन संधियों के माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीय रियासतों के शासकों को अपने नियंत्रण में लिया एवं इसने भविष्य में अंग्रेजों की विजय और विस्तार की नीति को बल दिया।
कर्नाटक युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना और फ्रांसीसी प्रभाव के पतन का प्रतीक है। इन युद्धों ने न केवल दक्षिण भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप में औपनिवेशिक सत्ता संघर्ष की दिशा को भी निर्धारित किया।
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