
All India Azad Muslim Conference: अखिल भारतीय आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन, जिसे आमतौर पर आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन कहा जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवादी मुसलमानों का एक प्रमुख संगठन था। इसका उद्देश्य एकजुट और अविभाजित भारत की वकालत करना तथा मुस्लिम लीग द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र सिद्धांत का विरोध करना था।
इस सम्मेलन में जमीयत उलेमा-ए-हिंद, मजलिस-ए-अहरार-उल-इस्लाम, ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस, ऑल इंडिया शिया पॉलिटिकल कॉन्फ्रेंस, खुदाई खिदमतगार, कृषक प्रजा पार्टी, अंजुमन-ए-वतन बलूचिस्तान, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस और जमीयत अहल-ए-हदीस जैसे संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे। कनाडाई प्राच्यविद् विल्फ्रेड कैंटवेल स्मिथ के अनुसार, 1940 में दिल्ली सत्र में उपस्थित लोग “भारत के मुसलमानों के बहुमत” का प्रतिनिधित्व करते थे।
All India Azad Muslim Conference: स्थापना और पृष्ठभूमि
आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन की स्थापना 1929 में अल्लाह बख्श सूमरो ने की थी, जो बाद में सिंध के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने कुछ वर्ष पहले सिंध इत्तेहाद पार्टी (सिंध यूनाइटेड पार्टी) भी बनाई थी।
20वीं सदी में ब्रिटिश भारत के कई मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग का कड़ा विरोध किया। अल्लाह बख्श सूमरो का मानना था कि धर्म चाहे जो भी हो, भारतीयों को एक संयुक्त परिवार की तरह सौहार्दपूर्वक रहना चाहिए, जहां हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने और समान अधिकारों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता हो।
Azad Muslim Conference: प्रमुख सम्मेलन और गतिविधियां
दिल्ली सत्र (27–30 अप्रैल 1940)
इस सत्र में 1400 से अधिक राष्ट्रवादी मुस्लिम प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अल्लाह बख्श सूमरो ने स्पष्ट कहा कि “कोई भी शक्ति भारतीय मुसलमानों के नागरिक अधिकारों को छीन नहीं सकती।”
प्रतिभागियों में अधिकांश मजदूर वर्ग से थे, जबकि मुस्लिम लीग का आधार मुख्यतः अभिजात वर्ग था। बॉम्बे क्रॉनिकल के अनुसार, इस बैठक में उपस्थिति मुस्लिम लीग की बैठक से लगभग पाँच गुना अधिक थी।
1940–1947 के बीच गतिविधियां
1942 से कई शहरों में सम्मेलन की बैठकें लगातार आयोजित होती रहीं, जिससे मुस्लिम लीग को चिंता होने लगी। 27–28 दिसंबर 1947 को लखनऊ में सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसका नेतृत्व हाफ़िज़ मोहम्मद इब्राहिम और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने किया। इस बैठक को ख़िलाफ़त आंदोलन के नेताओं का भी समर्थन मिला।
विचारधारा और घोषणाएं
आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन ने निष्कर्ष निकाला कि:
- पाकिस्तान का निर्माण देश के लिए अव्यावहारिक और हानिकारक होगा।
- यह विशेष रूप से मुसलमानों के हित के खिलाफ होगा।
- भारतीय मुसलमानों को अन्य धर्मों के भारतीयों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू ने इस सम्मेलन को “बहुत ही प्रतिनिधि और सफल” बताया। सम्मेलन को इस्लाम के देवबंदी स्कूल और जमीयत उलेमा-ए-हिंद का समर्थन प्राप्त था।
ब्रिटिश रुख और अंत
अपने व्यापक समर्थन के बावजूद, ब्रिटिश अधिकारियों ने आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन को दरकिनार किया और अपने पत्राचार में इसे “तथाकथित” संगठन कहा।
1942 में ब्रिटिश वायसराय विक्टर होप, लिनलिथगो के द्वितीय मार्केस ने इसे “मंचित प्रबंधित” करार दिया। अंततः, ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम लीग को भारतीय मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान्यता दी, जिससे भारत के विभाजन का रास्ता खुला।
निष्कर्ष
अखिल भारतीय आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उस धारा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने धर्म के आधार पर देश के बंटवारे का विरोध किया और एक समग्र, धर्मनिरपेक्ष तथा एकजुट भारत का सपना देखा। हालांकि राजनीतिक घटनाक्रम और ब्रिटिश नीति के कारण यह संगठन हाशिये पर चला गया, लेकिन इसके सिद्धांत और विचार आज भी भारतीय एकता के प्रतीक के रूप में याद किए जाते हैं।
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