भारत में आरक्षण का इतिहास
भारत में आरक्षण प्रणाली का इतिहास और उसका विकास एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक पहलू है। यह प्रणाली समाज के पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। इस लेख में हम आरक्षण प्रणाली के प्रमुख ऐतिहासिक घटनाक्रमों पर नजर डालेंगे।
आरक्षण का अर्थ
आरक्षण का अर्थ है अपना जगह सुरक्षित करना। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि वह हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित रख सके, चाहे वह शिक्षा, नौकरी, या राजनीतिक प्रतिनिधित्व हो। आरक्षण प्रणाली का मुख्य उद्देश्य समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को बराबरी का मौका देना है।
कब और कैसे लागू हुआ ?
आरक्षण का इतिहास
भारत में आरक्षण की शुरुआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी।
ब्रिटिश काल में आरक्षण
- 1891 में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की गई।
- 1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरुआत की गई, यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था।
- 1908 में अंग्रेजों द्वारा प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए आरक्षण की शुरुआत की गई। 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने सरकारी आदेश जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।
- 1935 में भारत सरकार अधिनियम में सरकारी आरक्षण को सुनिश्चित किया गया।
- 1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।
- 1950 में भारतीय संविधान ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की प्रतिबद्धता सुनिश्चित की। चार सिख दलित जातियों को छोड़कर, धर्मांतरण करने वालों को आरक्षण से बाहर रखा गया था।
- 1990 के दशक तक सिख और बौद्ध जातियों को शामिल कर लिया गया, लेकिन ईसाई और मुस्लिम दलित आज भी आरक्षण से बाहर हैं।
मंडल आयोग और उसके बाद
1979 में, बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में मंडल आयोग का गठन किया गया। 1990 में, प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई थी।
इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ, 1992: ऐतिहासिक मामला
इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ (1992) के ऐतिहासिक मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिए 27% सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने के सरकार के निर्णय को बरकरार रखा। हालांकि, इसने उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 10% सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने वाली अधिसूचना को खारिज कर दिया। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि आरक्षण कुल जनसंख्या के 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।
1992 में इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने जाति-आधारित आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा तय की और ‘क्रीमी लेयर‘ की अवधारणा पेश की, जिसमें पिछड़े वर्गों के आर्थिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को आरक्षण लाभों से बाहर रखा गया।
सन् 1916 से 1947 तक भारत में दलित और पिछड़ा वर्ग की परिभाषा और आरक्षण की ऐतिहासिक विकास
सन् 1916 से लेकर 1947 तक के कालखंड में दलित और पिछड़ा वर्ग की परिभाषा और उनकी स्थिति को लेकर कई महत्वपूर्ण निर्णय और समितियों का गठन हुआ। इस लेख में हम इस ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डालेंगे।
सन् 1916: “दलित वर्ग” की परिभाषा
सन् 1916 में भारत की विधान परिषद में “दलित वर्ग” की परिभाषा पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई थी। इसमें अपराधिक और घुमक्कड़ जनजातियों, मूल जनजातियों तथा अछूत वर्गों को “दलित वर्ग” में शामिल करने का निर्णय लिया गया था। यह कदम समाज के इन वंचित वर्गों के अधिकारों और उनकी सामाजिक स्थिति को सुधारने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी।
सन् 1919: साउथबारो समिति
1919 में साउथबारो समिति ने अश्पृश्यता (अस्पृश्यता) बाह्य आदिम और मूल जनजातियों तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को दलित वर्ग में शामिल करने के मानदंड प्रतिपादित किए। इस समिति का मुख्य उद्देश्य समाज के इन वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय और अवसर प्रदान करना था।
सन् 1928: हट्टाक समिति
1928 में हट्टाक समिति ने पिछड़ा वर्ग की परिभाषा करते हुए एक रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में उन वर्गों और जातियों को शामिल किया गया जो शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए थे। इसमें दलित वर्ग, आदिम जनजाति, पहाड़ी जनजाति, और अपराधिक जनजातियां शामिल थीं। इस समिति की सिफारिशों ने ब्रिटिश भारत में पिछड़े वर्गों की पहचान और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सन् 1929: भारतीय केंद्रीय समिति
1929 में भारतीय केंद्रीय समिति ने पिछड़ा वर्ग की सूची को ब्रिटिश भारत में मान्यता दी और “दलित वर्ग” शब्द को हटाने का निर्णय लिया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि ब्रिटिश सरकार पिछड़े वर्गों और समूहों को दलित वर्ग से अलग समझती थी। इस निर्णय ने समाज में विभिन्न वर्गों के बीच भेदभाव को और स्पष्ट किया।
भारतीय अधिनियम 1935
भारतीय अधिनियम 1935 के अंतर्गत “दलित वर्ग” के स्थान पर अनुसूचित जाति का नाम दिया गया। इसके साथ ही “आदिम जनजाति” के स्थान पर “पिछड़ी जनजाति” का नाम दिया गया। इस अधिनियम ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष अधिकार और सुरक्षा प्रदान की।
स्वतंत्रता के बाद
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय संविधान में पिछड़ी जनजाति के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग किया गया। 1947 तक भारतीय अधिनियम 1935 में की गई परिभाषा ही लागू थी। भारतीय गणतंत्र के संविधान में भी जाति, वंश, और मूल के आधार पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को परिभाषित किया गया।
भारतीय संविधान में आरक्षण से संबंधित संवैधानिक संशोधन
भारतीय संविधान में आरक्षण से संबंधित संवैधानिक संशोधन समावेशिता और समानता को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। इन संशोधनों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। यहां हम आरक्षण से संबंधित प्रमुख संवैधानिक संशोधनों पर एक विस्तृत दृष्टि डालेंगे।
77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995
1995 में पारित 77वें संविधान संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 16(4A) को जोड़ा। यह संशोधन राज्यों को अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है, बशर्ते कि उनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व हो। इस संशोधन ने सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सदस्यों को पदोन्नति के अवसर प्रदान करके उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया।
81वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000
2000 में पारित 81वें संविधान संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 16(4B) को प्रस्तुत किया। यह संशोधन उन विशेष वर्षों से अधूरी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कोटा रिक्तियों को आगे ले जाने की अनुमति देता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यदि किसी वर्ष में अनुसूचित जाति/जनजाति के कोटे के पद भर नहीं पाते, तो वे रिक्तियाँ अगले वर्षों में अलग से मानी जाएं और भरी जा सकें। इस संशोधन ने आरक्षण नीति की प्रभावशीलता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
85वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001
2001 में पारित 85वें संविधान संशोधन अधिनियम ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के लिए ‘परिणामी वरिष्ठता’ के साथ पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति दी। यह संशोधन जून 1995 से पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी हुआ। ‘परिणामी वरिष्ठता’ का अर्थ है कि पदोन्नति के समय आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को उनकी वरिष्ठता को बनाए रखने की अनुमति दी गई, जिससे उनके कैरियर में स्थायित्व और सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019
2019 में पारित 103वें संविधान संशोधन अधिनियम ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% आरक्षण प्रदान किया। यह संशोधन एक महत्वपूर्ण कदम था क्योंकि यह पहली बार आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। इस संशोधन का उद्देश्य उन नागरिकों को सहायता प्रदान करना था जो आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो।
अनुच्छेद 335
अनुच्छेद 335 इस बात पर जोर देता है कि संघ या राज्य के मामलों से संबंधित सेवाओं और पदों पर नियुक्तियाँ करते समय, प्रशासनिक दक्षता बनाए रखने के अनुरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि आरक्षण के प्रावधानों को लागू करते समय प्रशासनिक कार्यकुशलता और प्रदर्शन को ध्यान में रखना आवश्यक है, ताकि संतुलित और सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित हो सके।
नौकरी में आरक्षण कब लागू हुआ ?
पंचायत और सरकारी नौकरियों में महिला आरक्षण
2006 में, बिहार में महिलाओं को स्थानीय निकायों और पंचायतों में 50% आरक्षण दिया गया। इसके अलावा 2006 में प्राथमिक शिक्षक भर्ती में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। बाद में 2016 में बिहार की सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण दिया गया।
हाल के घटनाक्रम
2019 में संसद ने संविधान के अनुच्छेद 15 में संशोधन विधेयक पारित किया, जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10 प्रतिशत कोटा की अनुमति दी गई। 2023 में बिहार सरकार ने जाति आधारित सर्वे के आधार पर आरक्षण की सीमा को 75% करने की कोशिश की, लेकिन पटना उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया।
राज्यों में आरक्षण
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों ने 50% आरक्षण की सीमा से अधिक आरक्षण की व्यवस्था की है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु आरक्षण अधिनियम, 1993, राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 69% आरक्षण की अनुमति देता है। आंध्र प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए 100% आरक्षण की घोषणा की गई थी, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए 12-13% कोटा लाभ प्रदान किया गया, जिससे राज्य का आरक्षण प्रतिशत 50% से ऊपर चला जाता है।
निष्कर्ष
भारत में आरक्षण प्रणाली ने सामाजिक और आर्थिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हालांकि, यह प्रणाली समय-समय पर विवादों और चुनौतियों का सामना करती रही है, लेकिन इसके मूल उद्देश्य ने इसे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। आरक्षण प्रणाली का ऐतिहासिक विकास न केवल सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का हिस्सा भी है।